मुस्तफ़ा जैदी | Mustafa Jaidi | Shayari | Love Shayari
हम अंजुमन में सबकी तरफ़ देखते रहे
अपनी तरह से कोई अकेला नहीं मिला
अब तो चुभती है हवा बर्फ़ के मैदानों की
इन दिनों जिस्म के एहसास से जलता था बदन
कच्चे घड़े ने जीत ली नद्दी चढ़ी हुई
मज़बूत क़श्तियों को किनारा नहीं मिला
ऐ कि अब भूल गया रंगे-हिना भी तेरा
ख़त कभी ख़ून से तहरीर हुआ करते थे
कभी झिड़की से कभी प्यार से समझाते रहे
हम गई रात पे दिल को लिए बहलाते रहे
रूह के इस वीराने में तेरी याद ही सब कुछ थी
आज तो वो भी यूँ गुज़री जैसे ग़रीबों का त्यौहार
सीने में ख़िज़ां आंखों में बरसात रही है
इस इश्क़ में हर फ़स्ल की सौग़ात रही है
ढलेगी रात आएगी सहर आहिस्ता- आहिस्ता
पियो इन अंखड़ियों के नाम पर आहिस्ता- आहिस्ता
दिखा देना उसे ज़ख़्मे-जिगर आहिस्ता- आहिस्ता
समझकर, सोचकर, पहचानकर आहिस्ता- आहिस्ता
अभी तारों से खेलो चांदनी से दिल बहलाओ
मिलेगी उसके चेहरे की सहर आहिस्ता-आहिस्ता
सूफ़ी का ख़ुदा और था शायर का ख़ुदा और
तुम साथ रहे हो तो करामात रही है
इतना तो समझ रोज़ के बढ़ते हुए फ़ित्ने
हम कुछ नहीं बोले तो तिरी बात रही है
किसी जुल्फ़ को सदा दो, किसी आंख को पुकारो
बड़ी धूप पड़ रही है कोई सायबां नहीं है
इन्हीं पत्थरों से चलकर अगर आ सको तो आओ
मेरे घर के रास्ते में कोई कहकशां नहीं है
- मुस्तफ़ा जैदी | Mustafa Jaidi | Shayari | Love Shayari
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