सूरज के सिरहाने बैठा अँगरेज़ है,
धूप बड़ी तेज़ है, धूप बड़ी तेज़ है।
चालू-पुरजे, हरफ़न मौले चारो तरफ़,
हौले-हौले मौसम खौले चारो तरफ़,
होंठ हवा के फटना हैरतअंगेज़ है।
पाँव देख-देख किए मन उदास मोरनी,
टुकर-टुकर ताक रही प्यासी कठफोरनी,
बून्द-बून्द का क़िस्सा फिर वहशतखेज़ है।
ताप-ताप चीख़ एक-सी इसकी-उसकी,
आँख-आँख दरिया, आँसू-आँसू सिसकी,
पानी-पानी मन पर सहरा की सेज है।
ऐसी लू-लपट चली चट्टी-दर-चट्टी
अपनी ही आँच-आँच पिघल गई भट्ठी
ठूँठ खड़ी चिमनी को धुएँ से गुरेज है।
छाँव-छाँव बरगद ने चाल चली गहरी
डाल-डाल, पात-पात सज गई कचहरी
सोने की कुर्सी है, चाँदी की मेज़ है।
- जयप्रकाश त्रिपाठी- Jayprakash Tripathi
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