मन रो रहा है मेरा, मगर गा रहा हूँ मैं।
कुछ है, जो चुभ रहा है, तिलमिला रहा हूँ मैं।
आँखों से मेरे बरसे जो शबनम सुबह-सुबह,
उससे जिगर की लपटें सहला रहा हूँ मैं।
दस-पाँच क़दम चलकर थम जा रहे हैं पाँव,
जाना है बहुत दूर, चला जा रहा हूँ मैं।
ये कैसी अजनबीयत, ये कैसा मेल-जोल,
ये कैसा वास्ता, समझ न पा रहा हूँ मैं।
अनजाने में क्या ऐसी कोई बात हुई है,
ख़ुद से क्यों इतना घबरा रहा हूँ मैं।
चाहा कि लहलहाएँ, हों हरदम हरी-भरी,
जो फ़सलें बो रहा हूँ, जो उगा रहा हूँ मैं।
- जयप्रकाश त्रिपाठी- Jayprakash Tripathi
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