मन पछितैहै अवसर बीते।
दुर्लभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु हीते॥१॥
सहसबाहु, दसबदन आदि नप बचे न काल बलीते।
हम हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते॥२॥
सुत-बनितादि जानि स्वारथरत न करु नेह सबहीते।
अंतहु तोहिं तजेंगे पामर! तू न तजै अबहीते॥३॥
अब नाथहिं अनुरागु जागु जड़, त्यागु दुरासा जीते।
बुझै न काम-अगिनि तुलसी कहुँ, बिषयभोग बहु घी ते॥४॥
- तुलसीदास- Tulsidas
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