`कबीर'दुबिधा दूरि करि,एक अंग ह्वै लागि ।
यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि ॥1॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -- इस दुविधा को तू दूर कर दे - कभी इधर की बात करता है, कभी उधर की । एक ही का हो जा । यह अत्यन्त शीतल है और वह अत्यंत तप्त - आग दोनों ही हैं । [ दोनों ही `अति' को छोड़कर मध्य का मार्ग तू पकड़ ले ।]
दुखिया मूवा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झुरि ।
सदा अनंदी राम के, जिनि सुख दुख मेल्हे दूरि ॥2॥
भावार्थ - दुखिया भी मर रहा है, और सुखिया भी एक तो अति अधिक दुःख के कारण, और दूसरा अति अधिक सुख से । किन्तु राम के जन सदा ही आनंद में रहते हैं , क्योंकि उन्होंने सुख और दुःख दोनों को दूर कर दिया है ।
काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम ।
मोट चून मैदा भया ,बैठि कबीरा जीम ॥3॥
कबीर- Kabir
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