बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।
दुहुं चूका रीता पड़ैं , वाकूं वार न पार ॥1॥
भावार्थ - बैरागी वही अच्छा, जिसमें सच्ची विरक्ति हो, और गृहस्थ वह अच्छा, जिसका हृदय उदार हो । यदि वैरागी के मन में विरक्ति नहीं, और गृहस्थ के मन में उदारता नहीं, तो दोनों का ऐसा पतन होगा कि जिसकी हद नहीं ।
`कबीर' हरि के नाव सूं, प्रीति रहै इकतार ।
तो मुख तैं मोती झड़ैं, हीरे अन्त न फार ॥2॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं -- यदि हरिनाम पर अविरल प्रीति बनी रहे, तो उसके मुख से मोती-ही मोती झड़ेंगे, और इतने हीरे कि जिनकी गिनती नहीं । [ हरि भक्त का व्यवहार - बर्ताव सबके प्रति मधुर ही होता है- मन मधुर, वचन मधुर और कर्म मधुर ।]
ऐसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ ।
अपना तन सीतल करै, औरन को सुख होइ ॥3॥
भावार्थ - अपना अहंकार छोड़कर ऐसी बाणी बोलनी चाहिए कि, जिससे बोलनेवाला स्वयं शीतलता और शान्ति का अनुभव करे, और सुननेवालों को भी सुख मिले ।
कोइ एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि ।
बस्तर बासन सूं खिसै, चोर न सकई लागि ॥4॥
भावार्थ - पहर-पहर पर जागता हुआ जो सचेत रहता है, उसके वस्त्र और बर्तन कैसे कोई ले जा सकता है ?चोर तो दूर ही रहेंगे, उसके पीछे नहीं लगेंगे ।
जग में बैरी कोइ नहीं, जो मन सीतल होइ ।
या आपा को डारिदे, दया करै सब कोइ ॥5॥
भावार्थ - हमारे मन में यदि शीतलता है, क्रोध नहीं है और क्षमा है, तो संसार में हमसे किसीका बैर हो नहीं सकता । अथवा अहंकार को निकाल बाहर करदें, तो हम पर सब कृपा ही करेंगे ।
आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक ।
कह `कबीर' नहिं उलटिए, वही एक की एक ॥6॥
भावार्थ - हमें कोई एक गाली दे और हम उलटकर उसे गालियाँ दें, तो वे गालियाँ अनेक हो जायेंगी। कबीर कहते हैं कि यदि गाली को पलटा न जाय, गाली का जवाब गाली से न दिया जाय, तो वह गाली एक ही रहेगी ।
कबीर- Kabir
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