ऐसा ध्यान धरूँ बनवारी।
मन पवन दिढ सुषमन नारी।। टेक।।
सो जप जपूँ जु बहुरि न जपनां, सो तप तपूं जु बहुरि न तपनां।
सो गुर करौं जु बहुरि न करनां, ऐसे मरूँ जैसे बहुरि न मरनां।।१।।
उलटी गंग जमुन मैं ल्याऊँ, बिन हीं जल संजम कै आंऊँ।
लोचन भरि भरि ब्यंव निहारूँ, जोति बिचारि न और बिचारूँ।।२।।
प्यंड परै जीव जिस घरि जाता, सबद अतीत अनाहद राता।
जा परि कृपा सोई भल जांनै, गूंगो सा कर कहा बखांनैं।।३।।
सुंनि मंडल मैं मेरा बासा, ताथैं जीव मैं रहूँ उदासा।
कहै रैदास निरंजन ध्याऊँ, जिस धरि जांऊँ (जब) बहुरि न आंऊँ।।४।।
- रैदास- Raidas
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