बहुत दूर नमकीन, काले, धूसर सागर घूमकर
लौटे थे तुम और
इस नदी के पानी को देख
तुमने सोचा था कि
यह ज़रूर मीठा होगा।
चुल्लू में भरकर इसे पिया जा सकेगा।
यह सपना लिए बादामी बगुले की तरह
नदी किनारे प्यासे बैठे बैठे बीत गया समय।
केवल पंख भर भीगे प्यास नहीं बुझी।
एक विपन्न नाव,
और सारे घूमते हुए पानी के कीड़े, नाटक की हँसी।
चतुर घर के गालों पर आसमानी रंग
गाड़ी की छाया के पास बच्चों का गीत
आधी रात को बाँसुरी जैसा लगता।
तुमने मृत्यु के बारे में बहुत नहीं सोचा था।
तुम्हें सभी कुछ कैनवस की तसवीरों जैसा लगा करता था।
पुरी के समुद्र को देख आने के बाद
फूस की छत पर बारिश की आवाज़ सुन कर
कमरख का फल देखकर
लगता था बहुत बढ़िया है यह जीवन!
इसलिए तुमने
नौकरी या उधार की प्रसिद्धि की
कभी कामना नहीं की।
जिस प्रकार
कहीं और चले जाते हैं बगुले,
रह जाते हैं बस दो एक पंख।
किसी और नदी पर चली जाती है पूर्णिमा।
अंजलि पसारकर, ऊर्ध्वपद, सिर झुकाए
प्राणों की पथिक ध्वनि
क्या तुम्हें सुनाई दी थी
क्या पता, पाथरचापुड़ी के मेले में
सुबल बाउल के नाच के चक्कर के पास
क्या फिर से मुलाक़ात हो पाएगी
नाच के भीतर वही नदी अंजलि पसारती है।
अनुराधा महापात्र - Anuradha Mahapatra
#poemgazalshayari.in
No comments:
Post a Comment