मैं यह सोचकर उसके दर से उठा था
कि वह रोक लेगी मना लेगी मुझको ।
हवाओं में लहराता आता था दामन
कि दामन पकड़कर बिठा लेगी मुझको ।
क़दम ऐसे अंदाज़ से उठ रहे थे
कि आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको ।
कि उसने रोका न मुझको मनाया
न दामन ही पकड़ा न मुझको बिठाया ।
न आवाज़ ही दी न मुझको बुलाया
मैं आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता ही आया ।
यहाँ तक कि उससे जुदा हो गया मैं
जुदा हो गया मैं, जुदा हो गया मैं ।
- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi
#poemgazalshayari.in
No comments:
Post a Comment