हाथ आ कर गया, गया कोई ।
मेरा छप्पर उठा गया कोई ।
लग गया इक मशीन में मैं भी
शहर में ले के आ गया कोई ।
मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी
इश्तिहार इक लगा गया कोई ।
ऐसी मंहगाई है कि चेहरा भी
बेच के अपना खा गया कोई ।
अब कुछ अरमाँ हैं न कुछ सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई ।
यह सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई ।
वो गए जब से ऐसा लगता है
छोटा-मोटा ख़ुदा गया कोई ।
मेरा बचपन भी साथ ले आया
गाँव से जब भी आ गया कोई ।
- कैफ़ी आज़मी - Kaifi Azmi
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