मुड़ी डगर
मैं ठिठक गया
वन-झरने की धार
साल के पत्ते पर से
झरती रही
मैने हाथ पसार दिये
वह शीतलता चमकीली
मेरी अंजुरी
भरती रही
गिरती बिखरती
एक कलकल
करती रही
भूल गया मैं क्लांति, तृषा,
अवसाद,
याद
बस एक
हर रोम में
सिहरती रही
लोच भरी एडि़याँ
लहराती
तुम्हारी चाल के संग-संग
मेरी चेतना
विहरती रही
आह! धार वह वन झरने की
भरती अंजुरी से
झरती रही
और याद से सिहरती
मेरी मति
तुम्हारी लहराती गति के
साथ विचरती रही
मैं ठिठक रहा
मुड़ गयी डगर
वन झरने सी तुम
मुझे भिंजाती
चली गयीं
सो... चली गयीं...
sachchidanand hiranand vatsyayan "agay"- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"
#Poem Gazal Shayari
#Poem_Gazal_Shayari
No comments:
Post a Comment