मैं ने सुना: और मैं ने बार-बार स्वीकृति से, अनुमोदन से
और गहरे आग्रह से आवृत्ति की: 'मिट्टी से निरीह'-
और फिर अवज्ञा से उन्हें रौंदता चला-
जिन्हें कि मैं मिट्टी-सा निरीह मानता था।
किन्तु वसन्त के उस अल्हड़ दिन में
एक भिदे हुए, फटे हुए लोंदे के बीच से बढ़ कर अंकुर ने
तुनुक कर कहा-'मिट्टी ही ईहा है!'
कितना तुच्छ है तुम्हारा अभिमान जो कि मिट्टी नहीं हो-
जो कि मिट्टी को रौंदते हो-
जो कि ईहा को रौंदते हो-
'क्योंकि मिट्टी ही ईहा है!'
sachchidanand hiranand vatsyayan "agay"- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"
#Poem Gazal Shayari
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