फूट पड़ी मशरिक से किरने
हाल बना माज़ी[2] का फ़साना, गूंजा मुस्तकबिल[3] का तराना
भेजे हैं एहबाब[4] ने तोहफ़े, अटे पड़े हैं मेज़ के कोने
दुल्हन बनी हुई हैं राहें
जश्न मनाओ साल-ए-नौ के[5]
निकली है बंगले के दर से
इक मुफ़लिस दहकान[6] की बेटी, अफ़सुर्दा, मुरझाई हुई-सी
जिस्म के दुखते जोड़ दबाती, आँचल से सीने को छुपाती
मुट्ठी में इक नोट दबाये
जश्न मनाओ साल-ए-नौ के
भूके, ज़र्द, गदागर[7] बच्चे
कार के पीछे भाग रहे हैं, वक़्त से पहले जाग उठे हैं
पीप भरी आँखें सहलाते, सर के फोड़ों को खुजलाते
वो देखो कुछ और भी निकले
जश्न मनाओ साल-ए-नौ के
-साहिर लुधियानवी - saahir ludhiyaanavee
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