भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मगर से हम ।
ख़ामोश क्यों रहेंगे ज़माने के डर से हम ।
ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है,
क्यों देखें ज़िन्दगी को किसी की नज़र से हम ।
कुछ और बड़ गए अन्धेरे तो क्या हुआ,
मायूस तो नहीं हैं तुलु-ए-सहर[1] से हम ।
देगा किसी मक़ाम पे ख़ुद राहज़न का साथ,
ऐसे भी बदगुमान न थे राहबर से हम ।
माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके
कुछ ख़ार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम ।
-साहिर लुधियानवी - saahir ludhiyaanavee
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