अब न इन ऊंचे मकानों में क़दम रक्खूंगा
मैंने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी
अपनी नादार मोहब्बत की शिकस्तों के तुफ़ैल
ज़िन्दगी पहले भी शरमाई थी, झुंझलाई थी
और ये अहद[1] किया था कि ब-ई-हाले-तबाह[2]
अब कभी प्यार भरे गीत नहीं गाऊंगा
किसी चिलमन ने पुकारा भी तो बढ़ जाऊँगा
कोई दरवाज़ा खुला भी तो पलट आऊंगा
फिर तिरे कांपते होंटों की फ़ुन्सूकार[3]हंसी
जाल बुनने लगी, बुनती रही, बुनती ही रही
मैं खिंचा तुझसे, मगर तू मिरी राहों के लिए
फूल चुनती रही, चुनती रही, चुनती ही रही
बर्फ़ बरसाई मिरे ज़ेहनो-तसव्वुर ने[4] मगर
दिल में इक शोला-ए-बेनाम-सा[5] लहरा ही गया
तेरी चुपचाप निगाहों को सुलगते पाकर
मेरी बेज़ार तबीयत को भी प्यार आ ही गया
अपनी बदली हुई नज़रों के तकाज़े न छुपा
मैं इस अंदाज़ का मफ़हूम[6] समझ सकता हूँ
तेरे ज़रकार[7] दरीचों को बुलंदी की क़सम
अपने इकदाम का मकसूम[8] समझ सकता हूँ
अब न इन ऊँचे मकानों में क़दम रक्खूंगा
मैंने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी
इसी सर्माया-ओ-इफ़लास के[9] दोराहे पर
ज़िन्दगी पहले भी शरमाई थी, झुंझलाई थी
-साहिर_लुधियानवी - saahir ludhiyaanavee
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