ये सोचता हूँ चराग़ों का एहतिमाम करूँ
हवा को भूक लगी है कुछ इंतिज़ाम करूँ
हर एक साँस रगड़ खा रही है सीने में
और आप कहते हैं आहों पे और काम करूँ
अभी तो दिल की क़यादत में पाँव निकले हैं
तलाश-ए-इश्क़ रुके तो कहीं क़याम करूँ
ख़ता-मुआफ़ मगर इतना बे-अदब भी नहीं
बग़ैर दिल की इजाज़त तुम्हें सलाम करूँ
फ़क़ीर-ए-इश्क़ हूँ कश्कोल-ए-दिल में हसरत है
गदागरी का महासिल भी तेरे नाम करूँ
मिरे जुनून को सेहरा ही झेल सकता है
कहीं जो शहर में निकलूँ तो क़त्ल-ए-आम करूँ
-Mahshar afridi - महशर आफ़रीदी
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