क्या लिखूँ की वो परियो का रूप होती है
या कड़कती ठण्ड में सुहानी धूप होती है
वो होती है चिड़िया की चहचाहट की तरह
या फिर निच्चल खिलखिलाहट
क्या लिखूँ की वो परियो का रूप होती है
या कड़कती ठण्ड में सुहानी धूप होती है
वो होती है उदासी में हर मर्ज़ की दवा की तरह
या उमस में शीतल हवा की तरह
वो चिड़ियों की चहचाहट है
या फिर निच्चल खिलखिलाहट है
वो आँगन में फैला उजाला है
या मेरे गुस्से पे लगा ताला है
वो पहाड़ की चोटी पर सूरज की किरण है
वो जिंदगी सही जीने का आचरण है
है वो ताकत जो छोटे से घर को महल कर दे
वो काफ़िया जो किसी ग़ज़ल को मुक्कम्मल कर दे
क्या लिखूँ की वो परियो का रूप होती है
या कड़कती ठण्ड में सुहानी धूप होती है
वो होती है चिड़िया की चहचाहट की तरह
या फिर निच्चल खिलखिलाहट
वो अक्क्षर जो न हो तो वर्णमाला अधूरी है
वो जो सबसे जयादा जरूरी है
ये नहीं कहूँगा कि वो हर वक़्त सांस सांस होती है
क्यूकि बेटिया तो सिर्फ अहसास होती है
उसकी आँखें न मुझसे गुड़िया मांगती है ना खिलौना
कब आओगे बस एक छोटा सा सवाल सलोना
जल्दी आऊंगा अपनी मजबूरी को छिपाते हुए मैं देता हूँ जबाब
तारीख बताओ टाइम बताओ ,
वो उंगलियो पर करने लगती है हिसाब
और जब में नहीं दे पता सही सही जबाब,
अपने आंसुओ को छुपाने के लिए वो अपने चहरे पर रख लेती है किताब
वो मुझसे ऑस्ट्रेलिया में छुटिया ,
मर्सर्डीस की ड्राइव ,फाइव स्टार में खाने
नए नए आईपॉड्स नहीं मांगती ,
ना कि वो बहुत सरे पैसे अपने पिग्गी बैग में उड़ेलना चाहती है
वो बस कुछ देर मेरे साथ खेलना चाहती है
वही बेटा काम है बहुत जरूरी काम है में शूटिंग करना जरूरी है
नहीं करूँगा तो कैसे चलेगा ,
जैसे मजबूरी भरे दुनिया दारी के जबाब देने लगता हूँ
वो झूठा ही सही मुझे अहसास कराती है जैसे सब समझ गयी हो
लेकिन आँखें बंद करके रोती है,
सपने में खेलते हुए मेरे साथ सोती है
जिंदगी ना जाने क्यों इतना उलझ जाती है
और हम समझते है कि बेटियां सब समझ जाती है
-शैलेश लोढ़ा -shailesh lodha
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