रुख़सती होते ही मां-बाप का घर भूल गयी।
भाई के चेहरों को बहनों की नज़र भूल गयी।
घर को जाती हुई हर राहगुज़र भूल गयी,
मैं वो चिडि़या हूं कि जो अपना शज़र भूल गयी।
मैं तो भारत में मोहब्बत के लिए आयी थी,
कौन कहता है हुकूमत के लिए आयी थी।
नफ़रतों ने मेरे चेहरे का उजाला छीना,
जो मेरे पास था वो चाहने वाला छीना।
सर से बच्चों के मेरे बाप का साया छीना,
मुझसे गिरजा भी लिया, मुझसे शिवाला छीना।
अब ये तक़दीर तो बदली भी नहीं जा सकती,
मैं वो बेवा हूं जो इटली भी नहीं जा सकती।
आग नफ़रत की भला मुझको जलाने से रही,
छोड़कर सबको मुसीबत में तो जाने से रही,
ये सियासत मुझे इस घर से भगाने से रही।
उठके इस मिट्टी से, ये मिट्टी भी तो जाने से रही।
सब मेरे बाग के बुलबुल की तरह लगते हैं,
सारे बच्चे मुझे राहुल की तरह लगते हैं।
अपने घर में ये बहुत देर कहाँ रहती है,
घर वही होता है औरत जहाँ रहती है।
कब किसी घर में सियासत की दुकाँ रहती है,
मेरे दरवाज़े पर लिख दो यहाँ मां रहती है।
हीरे-मोती के मकानों में नहीं जाती है,
मां कभी छोड़कर बच्चों को कहाँ जाती है?
हर दुःखी दिल से मुहब्बत है बहू का जिम्मा,
हर बड़े-बूढ़े से मोहब्बत है बहू का जिम्मा
अपने मंदिर में इबादत है बहू का जिम्मा।
मैं जिस देश आयी थी वही याद रहा,
हो के बेवा भी मुझे अपना पति याद रहा।
मेरे चेहरे की शराफ़त में यहाँ की मिट्टी,
मेरे आंखों की लज़ाजत में यहाँ की मिट्टी।
टूटी-फूटी सी इक औरत में यहाँ की मिट्टी।
कोख में रखके ये मिट्टी इसे धनवान किया,
मैंन प्रियंका और राहुल को भी इंसान किया।
सिख हैं,हिन्दू हैं मुलसमान हैं, ईसाई भी हैं,
ये पड़ोसी भी हमारे हैं, यही भाई भी हैं।
यही पछुवा की हवा भी है, यही पुरवाई भी है,
यहाँ का पानी भी है, पानी पर जमीं काई भी है।
भाई-बहनों से किसी को कभी डर लगता है,
सच बताओ कभी अपनों से भी डर लगता है।
हर इक बहन मुझे अपनी बहन समझती है,
हर इक फूल को तितली चमन समझती है।
हमारे दुःख को ये ख़ाके-वतन समझती है।
मैं आबरु हूँ तुम्हारी, तुम ऐतबार करो,
मुझे बहू नहीं बेटी समझ के प्यार करो।
-मुनव्वर राना - munavvar raana
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