हवा कुछ ऐसी चली है बिखर गए होते
रगों में खून न होता तो मर गए होते
ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ
हम अपने शहर में होते तो घर गए होते
हमीं ने जख्मे -दिलो-जाँ छुपा लिए वरना
न जाने कितनों के चेहरे उतर गए होते
हमें भी दुख तो बहुत है मगर ये झूठ नहीं
भुला न देते उसे हम तो मर गए होते
सुकूने -दिल को न इस तरह से तरसते हम
तेरे करम से जो बच कर गुजर गए होते
जो हम भी उस से जमाने की तरह मिल लेते
हमारे शामो – ओ शहर भी संवर गए होते
- Mohammad Imran "Prataparh" - मो० इमरान "प्रतापगढ़ी"
ये "निदा फ़ाज़ली" साहब की ग़ज़ल है
ReplyDeleteमुआफ़ी चाहता हूँ ये ग़ज़ल "निदा" साहब की नहीं बल्कि उनके भाई "उम्मीद फ़ाज़ली" साहब की है
ReplyDelete