हर एक चेहरा यहाँ पर गुलाल होता है
हमारे शहर मैं पत्थर भी लाल होता है
मैं शोहरतों की बुलंदी पर जा नहीं सकता
जहाँ उरूज[1] पर पहुँचो ज़वाल[2] होता है
मैं अपने बच्चों को कुछ भी तो दे नहीं पाया
कभी-कभी मुझे ख़ुद भी मलाल होता है
यहीं से अमन की तबलीग[3] रोज़ होती है
यहीं पे रोज़ कबूतर हलाल होता है
मैं अपने आप को सय्यद तो लिख नहीं सकता
अजान देने से कोई बिलाल होता है
पड़ोसियों की दुकानें तक नहीं खुलतीं
किसी का गाँव में जब इन्तिकाल होता है
-मुनव्वर राना - munavvar raana
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