एक दिन देखकर उदास बहुत
आ गए थे वो मेरे पास बहुत ।
ख़ुद से मैं कुछ दिनों से मिल न सका
लोग रहते हैं आस-पास बहुत ।
अब गिरेबाँ बा-दस्त हो जाओ
कर चुके उनसे इल्तेमास[1] बहुत ।
किसने लिक्खा था शहर का नोहा
लोग पढ़कर हुए उदास बहुत ।
अब कहाँ हम-से पीने वाले रहे
एक टेबल पे इक गिलास बहुत ।
तेरे इक ग़म ने रेज़ा-रेज़ा किया
वर्ना हम भी थे ग़म-श्नास बहुत ।
कौन छाने लुगात[2] का दरिया
आप का एक इक्तेबास[3] बहुत ।
ज़ख़्म की ओढ़नी, लहू की कमीज़
तन सलामत रहे लिबास बहुत ।
Dr. Rahat “ Indauri” - डॉ० राहत “इन्दौरी”
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