अजब जूनून-ए-मुसाफ़त में घर से निकला था,
ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था,
ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया,
अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र से निकला था,
ये तीर दिल में मगर बे-सबब नहीं उतरा,
कोई तो हर्फ़ लब-ए-चारागर से निकला था,
मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया,
कि दिल का दर्द मेरे चश्म-ए-तर से निकला था,
वो कैसे अब जिसे मजनू पुकारते हैं ‘फ़राज़’,
मेरी तरह कोई दिवाना-गर से निकला था,
-Ahamad Faraz - अहमद फ़राज़
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